जब भी आप ईमानदारी की बात करते हैं तो सयाने लोग यह कहकर आपको भ्रष्ट होने की सलाह देते हैं कि आदमी को व्यावहारिक होना चाहिए। मगर इधर मैं देख रहा हूं कि व्यावहारिक होने की मजबूरी के चलते जो लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, अपने भ्रष्टाचार में वो जरा भी व्यावहारिकता नहीं दिखाते। तभी तो भ्रष्टाचार करते-करते वो इस हद तक सीमाएं लांघ जाते हैं कि एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि आखिर इतने पैसे का मैं करूंगा क्या? जैसे हाल ही में मध्य प्रदेश के एक वन अधिकारी के यहां छापेमारी में 75 करोड़ की संपत्ति का खुलासा हुआ। छापेमारी में उनके यहां सोने- चांदी के लाखों के जेवरात के अलावा पेट्रोल पंप, कई होटल, सैकड़ों बीघा कृषि भूमि, दसियों प्लॉट, फार्म हाउस, तीन मैरिज गार्डन, एक दर्जन बैंक लॉकर, आधा दर्जन मकान, दस लाख नकदी और बीस लाख की एफडी की रसीदें प्राप्त हुईं। और इससे पहले कि ये सब सुनकर आप हाय राम! कहें, बता दूं कि ये आंकड़ा तो सिर्फ पहले दिन की छापेमारी का है। आगे और भी न जाने कितनी संपत्ति बरामद हुई होगी। अब मेरे इस हिसाब से अव्यावहारिक भ्रष्टाचार का यह सर्वोत्तम उदाहरण है। मसलन, ताजा-ताजा भ्रष्ट हुआ इंसान यह सोचकर दो पैसे बनाता है कि चलो घर का खर्च अच्छे से निकल जाए। जब खर्च निकल जाता है तो उसे लगता है कि दो पैसे और बना एक घर खरीद लूं। वो घर खरीदकर हटता है तभी उसकी नजर बड़े हो रहे अपने निकम्मे बड़े बेटे पर पड़ती है। वो यह सोचकर घबरा जाता है कि मेरे जाने के बाद इसका क्या होगा। दो पैसा और जोड़कर वो उसके लिए भी एक मकान बना लेता है। फिर बीवी याद दिलाती है कि बड़े का तो ठीक है, मगर छोटे ने क्या गुनाह किया है। पत्नीव्रत भ्रष्ट अधिकारी बीवी के इस आग्रह पर छोटे के लिए भी घर बनाता है। फिर वो दोनों बेटों की होने वाली बीवियों का गोल्ड बनाता है और 'आदमी के हाथ में कुछ कैश भी होना चाहिए' की मजबूरी को समझते हुए एकाध छिटपुट फ्ऱॉड और करके चालीस- पचास लाख कैश भी जोड़ लेता है। अब अगर आप मुझसे पूछें तो कहूंगा कि बढ़ती महंगाई और बच्चों के प्रति जवाबदेही को देखते हुए आज के दौर में इतना भ्रष्टाचार जस्टिफाइड है। मगर जब मैं देखता हूं कि आदमी ने भ्रष्टाचार की कमाई से तीन अलग-अलग शहरों में एक दर्जन मकान बना लिए, तो मुझे इस बात पर गुस्सा नहीं आता कि उसने इन मकानों के मुहूर्त पर मुझे बुलाया क्यों नहीं, बल्कि उसकी बुद्धि पर तरस आता है। अरे, जब आपके पास पहले से इतनी दौलत है तो फिर अलग से आठ नौ मकान और बनाने की जरूरत क्या थी। क्या इतने मकान खरीदकर किराए पर चढ़ाने हैं। और सत्तर अस्सी लाख के मकान पर अगर आठ दस हजार किराया मिल भी गया, तो ये कहां की अक्लमंदी है। दस हजार रुपये तो अगर आप जोर से छींक दें तो आपके नथुनों से निकल सकते हैं इसके लिए लाखों का फ्रॉड करने की जरूरत क्या थी। इसके अलावा जब घर में पहले से बीस पचीस तोला सोना है तो अलग-अलग लॉकरों में सोने के बिस्किट खरीदकर रखने की जरूरत क्या है। इन बिस्किटों को क्या उन्हें रिटायरमेंटके बाद चाय में डुबोकर खाना है। इसके अलावा भी इन भ्रष्टाचारों में कई अव्यावहारिक चीजें देखने को मिलती हैं। मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि फाइनेंशल एडवाइज़र कीतर्ज पर करप्शन एडवाइज़र भी होने चाहिए जो इन अधिकारियों को समझाएं कि बढ़ती महंगाई दर को देखते हुए उन्हें आने वाले तीन चार सौ सालों और आठ दस पीढ़ियों के लिएकितने पैसे चाहिए होंगे। और एक बार जब अधिकारी वो टारगेट अचीव कर ले तो एडवाइज़र उन्हें सलाह दे कि सर, अब बस कीजिए। और फ्रॉड किया तो उसका कोई फायदा नहींहोगा, आप खुद को रिस्क में डालेंगे। वैसे भी किसी सयाने ने कहा है कि कब शुरू करना चाहिए इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि हमें कब रुक जाना चाहिए। |
Dr. Vijay Pithadia, FIETE, PhD, MBA Director, PhD Guided: 5, Author of 6 Books, Google Scholar Citations - 585, h-index - 8, M: +91 9898422655 UGC/Scopus/Web of Science Publication: 30, Referred/Peer Reviewed Publication: 63, Chapters Published In Books: 12, Full Papers Published in Conference Proceedings: 21, Patent Published: 3, Invited Lectures and Chairmanship etc.: 41, Conference Organized: 4, AICTE faculty ID: 1-24647366683