20150307

न समर्थन, न विरोध

साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावे नाहि। 
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहि।। 
वक्ता: कल रात में जो लोग साथ थे, उनसे एक बात कही थी कि ‘त्याग कहता है, ‘न सुख, न दुःख’ और बोध कहता है, ‘जब सुख, तब सुख और जब दुःख, तब दुःख’।
एक बार एक ज़ेन साधक से किसी ने पूछा कि जब सर्दी लगे, जब गर्मी लगे, तो क्या करें? सर्दी-गर्मी से मुक्ति का क्या उपाय है? तो ज़ेन साधक ने उत्तर दिया, ‘जब गर्मी लगे, तो गर्म हो जाओ, और जब सर्दी लगे, तो सर्द हो जाओ’। यही उपाय है- गर्मी में गर्म, और सर्दी में सर्द। बदलने की कोशिश मत करो, छेड़ने की कोशिश मत करो।
जगत प्रकृति के नियमों के आधीन है, और सत्य की छाया मात्र है, वह प्राथमिक नहीं है। इससे छेड़खानी का कोई औचित्य नहीं है, ये मूल है ही नहीं। किसी पेड़ की शाखों, पत्तियों को कुतरने से क्या होगा? मूल है अगर, तो हजार पत्तियां, हजार शाखाएं बार-बार निकलती ही रहेंगी। इनसे लड़ने से क्या होगा? ये महत्वपूर्ण हैं ही नहीं।
समझदार व्यक्ति संसार को इतना भी महत्व नहीं देता कि वो उसका परित्याग करे। उसे ये भी नहीं करना है कि सुख आ रहा है, तो सुख का त्याग कर दे, या दुःख आ रहा है तो दुःख को भोगने से बचे, उसे ये नहीं करना। वो कहता है, ‘इनको महत्व ही क्यों देना? ये कह कर के कि मैं फलानी वस्तु का त्याग करना चाहता हूं, मैं उस वस्तु को ज़रुरत से ज़्यादा महत्वपूर्ण बना देता हूँ। तेरा इतना भी महत्व नहीं है कि मैं तुझे त्यागूँ’। बात समझिएगा।
जब त्यागी कहता है कि मुझे कुछ त्यागना है, तब उसके मन में दिन-रात वही वस्तु चलती है जिसे उसे त्यागना है। आप तय कर लो कि आपको अपना अपना वज़न त्यागना है, और यहाँ पर कई लोगों ने ऐसा तय किया होगा कई मौकों पर, अपनी ज़िंदगी में। आप ये तय कर लो कि आपको दस किलो वज़न कम करना है, अगले छः महीने के भीतर, तो छः महीने तक आपके दिमाग में सिर्फ़ वज़न ही वज़न घूमेगा। अब ये बड़ी मज़ेदार बात है। जो त्यागना है, वही दिमाग में घूम रहा है क्योंकि अब वह महत्वपूर्ण हो गया, अब वह महत्वपूर्ण हो गया। ये सहजता नहीं है।
जिन भी धर्मों ने ये सिखाया है कि ये न करो, वो न करो, ये त्यागो, ऐसा आचरण रखो, उन्होंने अंततः यही पाया कि त्यागा कुछ जा ही नहीं सकता, हाँ दमन किया जा सकता है, पर दमन से कोई लाभ नहीं होगा।
जब आप कहते हो, कोई वस्तु त्याग दो, तो आप यही बता रहे हो कि ये महत्वपूर्ण है, और इसीलिये जिसको आप बता रहे हो, उसके मन में लालच पैदा कर रहे हो। उदहारण के लिये, आप अगर किसी को बताओ कि शराब बुरी चीज़ है, उसको त्याग दो, तो आपको अच्छे से पता होना चाहिये कि आपने उसके मन में शराब के प्रति लालच पैदा कर दिया है। ‘ये मत्वपूर्ण बात होगी, तभी तो त्यागी जा रही है’।
जब आप कहेंगे कि शराब त्याग दो, तो फिर आपको ये भी कहना पड़ेगा कि जब मरोगे और जन्नत जाओगे, तो वहाँ पर शराब के दरिया बह रहे होंगे, तभी तो वो त्यागेगा। ‘कोई बड़ी चीज़ है, तभी तो त्यागनी है। बड़ी चीज़ है, तो देनी पड़ेगी न?’ आप ही ने सिद्ध कर दिया कि बड़ी चीज़ है।
‘स्त्रियाँ बुरी हैं, कंचन-कामिनी हैं, इन्हें त्याग दो। इनकी ओर देखना नहीं, भ्रष्ट कर देंगी, नरक का द्वार हैं। अगर तुमने इन्हें त्याग दिया, अगर तुमने स्त्रियों को त्याग दिया, तो फिर, मेनका और उर्वशी मिलेंगी’। तर्क देखिये, अगर तुमने स्त्रियों को त्याग दिया, तो तुमको अप्सराएं मिलेंगी। स्त्रियों को त्यागो, ताकि स्त्रियाँ मिलें। आप बड़े होशियार हैं! पर ये आपको करना पड़ेगा, क्योंकि त्यागने का अर्थ ही है कि वो वस्तु, वो व्यक्ति, महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण है। ‘महत्वपूर्ण है, तो लाओ, दो, कभी न कभी तो देना पड़ेगा’।
साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावे नाहि। 
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहि।। 
यहाँ कुछ भी इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि उसके साथ छेड़खानी की जाए। न आकर्षण, न विकर्षण। छेड़खानी की ज़रुरत ही नहीं है, जो जैसा है, सो है। इसी को बौद्धों ने ‘तथाता’ कहा है, ‘जो जैसा है सो है’। छेड़खानी क्या करनी है?
सुख आए, सुखी हो लो। अरे कौन सी बड़ी बात हो गई? हंसी आ रही है, हंस लो। दुःख आए, जी भर के दुखी हो लो। अरे कौन सी बड़ी बात हो गई? ‘न सुख मेरा स्वाभाव है, न दुःख मेरा स्वाभाव है, ये तो यूं ही हैं, हम इन्हें भाव देते ही नहीं। ये आए, तो हमने इन्हें गुज़र जाने दिया। हम इनका प्रतिरोध भी क्यों करें? हम इन्हें त्यागें भी क्यों?’
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहि।
छेड़ने जैसी हमारी कोई इच्छा नहीं है, कुछ बदलने का हमारा कोई इरादा ही नहीं है। असाधारण होने की हमारी कोई लालसा नहीं है। जैसा है सो है, और यही अपने आप में सबसे असाधारण बात है, क्योंकि असाधारण तो हर कोई होना चाहता है, और वो बड़ी साधारण बात है।
नानक एक गांव में गए, वहाँ के लोगों ने पहले ही अपनी छवि बना रखी थी कि हम तो बड़े ज्ञानी हैं, और ये कोई और साधु चला आ रहा है, हमें इसकी बात सुनने कि ज़रुरत नहीं है। तो जब नानक गांव की सीमा पर पहुँचे, तो उन लोगों ने शिष्टतापूर्वक नानक को संदेस भिजवाया। उन्होंने एक बड़ा पात्र भिजवाया, एक द्रव्य से भर कर, दूध रहा होगा, पानी रहा होगा, पूरा ऊपर तक भरा हुआ। एक बूंद भी उसमें, दूध या पानी के लिये, कोई जगह शेष नहीं। वो उन्होंने नानक को भिजवाया। समझदार को इशारा काफी, नानक समझ गए कि वो लोग क्या कहना चाहते हैं कि ‘हम भरे हुए हैं। हमारे पास अब जरा भी जगह नहीं है तुम्हारे लिये’। नानक ने एक छोटा-सा पत्ता उठाया, नीचे से, और उस पात्र में तैरा दिया, और लौटा दिया।
गांव के लोग इतने भी बेवकूफ न थे, इशारा समझ गए कि ‘मैं तुम्हारा बोझ बढ़ाने नहीं आया हूं, मैं तुम्हारा स्थान घेरने नहीं आ आया हूं। मैं तो ऐसे जीता हूं, तैरता हुआ। मेरा कोई अपना अस्तित्व ही नहीं है। मेरा कोई इरादा नहीं है किसी को बाहर करने का, कोई बदलाव करने का। मैं तो अस्तित्व की गोद में तैर रहा हूं’।
पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहि।।
जो उग रहा है, उसे उगने दो। जो गिर रहा है, उसे गिरने दो। तुम बीच में अपना कर्ताभाव न लेकर आओ। बगीचा है, प्रकृति है, इसमें प्रकृति के सारे खेल लगातार, निरंतर, सामानांतर चल रहें हैं। तुम इन सभी खेलों के साक्षी मात्र रहो। हर्ष आएगा, शोक आएगा, तुम किसी को जीवन लेता देखोगे, तुम किसी की मृत्यु भी देखोगे, जीवन में किसी का प्रवेश होगा, तो किसी की विदाई भी होगी।
‘इस घर की यह रीत है, इक आवत इक जात’, तुम इन सब के साक्षी रहो, इन सब से गुज़र जाओ। तोड़-मरोड़ की कोशिश न करो। ये तोड़-मरोड़ की कोशिश ही तुम्हारी विक्षिप्तता है। इसी को कह रहें हैं कबीर, ‘दुखै दुखावे नाहि’। ये तोड़-मरोर की कोशिश ही दुःख है।
बाहर-बाहर जो प्रकृतिस्थ हो लेता है, वही भीतर-भीतर समाधिस्थ हो सकता है।
बाहर-बाहर पूरी तरह प्रकृति को अंगीकार कर लो, तभी भीतर से समाधि पाओगे। हमने पूरी कोशिश करी है प्रकृति से लड़ने की। क्योंकि हम प्रकृति से लड़ते हैं, इसीलिये हम समाधि को भी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। प्रकृति को अपना काम करने दो।
समझ सकते हैं, देख रहे होंगे की कबीर ने दुःख को परिभाषित भी कर दिया यहाँ पर। संसार के निरंतर प्रवाह को बदलने की कोशिश, उससे छेड़खानी की कोशिश, यही दुःख है, और कुछ दुःख नहीं होता। संसार चलायमान है, और हम कोशिश क्या करते हैं? उसमें अचल को खोज लेने की।
तुम्हें किसी से प्रेम होता है, तुम क्या कोशिश करते हो? कि अब इस रिश्ते को अचल बना दूं, ये हिले न। फिर तुम उस रिश्ते को हज़ार तरीकों से बांधने की युक्तियाँ लगाते हो, तुम सामाजिक ठप्पे लगाते हो। तुम कहते हो, ‘मैंने विवाह कर लिया’। तुम उस पर और कई प्रकार के मानसिक पहरे बैठाते हो। यही छेड़खानी है प्रकृति के बहाव से, और ये सबसे बड़ी मूढ़ता है और अपने प्रति गुनाह भी है। क्या? कि जो चलायमान है, उसकी चाल को रोकने की कोशिश करना, उसे अचल बनाना कि जैसे प्रेम को विवाह बना दें, और दूसरा, जो अचल है, उसको चलायमान जगत में स्थापित कर दें। यही दोनों मूल गुनाह हैं, और यही दोनों, हमारे सारे कष्टों का कारण हैं।
जिसे जाना ही है, हम वहाँ पर अपरिवर्तन खोजते हैं, और जो अपरिवर्तनीय है, उसे हम विनाशी दुनिया में स्थापित कर देते हैं। यही दोनों पाप हैं। यही हमारी विपरीत बुद्धि है। जहाँ चला-चली का मेला है, वहाँ पर हम कुछ ऐसा खोजते हैं जो कभी हमसे बिछुड़े न, और फिर जब वो हमसे बिछुड़ जाता है, तो हमें बड़ा दुःख होता है।
संसार में हमारी जितनी चेष्टाएं हैं, उन सारी चेष्टाओं के पीछे हमारी यही इच्छा तो है कि कुछ ऐसा मिल जाए जो छिने न। कम से कम शरीर को लेकर तो यही आकांक्षा रहती है कि शरीर कभी हमसे छिन न जाए, रिश्तों को लेकर भी यही रहती है। जब कुछ मन चाहा मिल गया, तो अब ये कभी हमसे छिने न, कम से कम सात जन्मों तक रहे, ये पाप है। जहाँ पर धर्म का ये अर्थ लगाया जाता हो कि अग्नि के फेरे लेकर, ये कसम खाओ कि हम जन्मों-जन्मों तक साथ रहेंगे, उस साथ की तो शुरुआत ही पाप की बुनियाद पर हुई है, क्योंकि आप उसको रोकने की कोशिश कर रहे हो, जो रुक सकता नहीं। आप परमात्मा की योजना में विघ्न डाल रहे हो।
जो बनाया ही ऐसा गया है कि वो चलता रहे, बदलता रहे, वहाँ पर आप बदलाव को रोकने की कोशिश कर रहे हो। वहाँ आप कह रहे हो की, ‘हम आजीवन साथ रहेंगे’। आजीवन क्या साथ रहना है तुम्हारे? कुछ है जो आजीवन साथ रहा है? क्या तुम ही आजीवन अपने साथ रहे हो? तुम ही प्रतिपल बदल रहे हो, पर देखो तुम चेष्टा क्या करते हो कि कुछ और हो जो आजीवन हमारे साथ रहे। आजीवन भी साथ रहे, अगले जन्म भी साथ रहे, यही पाप है। और जो निरंतर तुम्हारे साथ है, इस पूरी कोशिश में, तुम उसको भूल जाते हो।
जब किसी बाहरी वस्तु को, या व्यक्ति को, तुम आजीवन साथ रखना चाहते हो, तो सबसे पहले तुम उसको भूलते हो, जो तुम्हारे साथ है ही, वो भूला जाता है। अपने असली साथी को भुला कर, तुम बाहर नकली साथी खोजते हो, और वहाँ स्थायित्व की मांग करते हो, यही पाप है।
दुःख आकांक्षा है, दुःख प्रतिरोध है।
दोनों बातें कह रहा हूं। आपको उनमें कहीं कोई असामंजस्य न दिखाई दे। जब हम बोध-शिविर में थे, तो मैंने कहा था कि, उपनिषद की बुनियाद में एक विद्रोह बैठा होता है। याद है हमने क्या कहा था? ‘मुक्ति का आरंभ होता है ‘न’ से (फ्रीडम बिगिन्स विद अ ‘नो’)’, और यहाँ मैं आपसे बात कर रहा हूं अप्रतिरोध की। आप कहेंगे, ‘ये क्या बात है, वहाँ तो आप बार-बार कह रहे थे कि विरोध करो, और यहाँ आप कह रहे हैं अप्रतिरोध। कभी विरोध, कभी अप्रतिरोध, ये क्या है?’
मैं कह रहा हूं, ‘सत्य के प्रति गहरा अप्रतिरोध, और झूठ का पूर्ण विरोध’। दोनों एक ही बात हैं।
अहंकार झूठ है। वो जहाँ उठे, वहाँ विरोध। आकर्षण, आसक्ति झूठ है। वो जहाँ उठे, वहाँ विरोध, पर अहंकारहीन प्रकृति सत्य की उत्पत्ति है, उसका कोई विरोध नहीं। ये बात सूक्ष्म है, इसको समझिएगा। मैं आसक्ति का विरोध करता हूं, शरीर का नहीं, शरीर का गुलाम हो जाने का विरोध करता हूं। शरीर का गुलाम नहीं होना है, इसका अर्थ ये भी नहीं है कि शरीर को अपना गुलाम बना लेना है। शरीर को उसका काम करने देना है।
न शरीर से आसक्ति, न शरीर से विरक्ति। शरीर प्रकृति है, प्रकृति अपना काम खूब जानती है। आपको किसी तरीके का दखल देने की ज़रुरत नहीं है।
‘पान फूल छेड़े नहीं…’,पान-फूल : प्रकृति। आप न छेड़े, वो अपना काम जानती है। न आप उसका समर्थन करिये, न आप उसके विरोध में खड़े होइये। वहाँ तो अप्रतिरोध है, जो हो रहा है, वो प्रकृति है। ‘मैं’, शरीर कभी ‘मैं’ नहीं बोलता। या बोलता है? जब विरोध करने की बात आती है, तो मैं उसकी ओर इशारा कर रहा हूँ जो आपके भीतर बैठा है और ‘मैं, मैं, मैं’ करता रहता है, वो झूठा है। वही दुःख का कारण है, और वो कुछ भी करवा सकता है। वो किसी का भी विरोध करवा सकता है। वो मात्र परमात्मा का ही विरोध नहीं करवाता आपसे, वो शरीर का भी विरोध करवाता है। ये जो तथाकथित धार्मिक आदमी होता है हमारा, ये सिर्फ अपने अहंकार के समर्थन में होता है। ये परमात्मा का भी विरोध करता है, और प्रकृति का भी विरोध करता है।
आप गौर से देखियेगा, आपके ये जो तथाकथित धार्मिक लोग होते हैं, ये परमात्मा का भी विरोध करते हैं और प्रकृति का भी करते हैं। ये प्रकृति का विरोध कैसे करते हैं? नैतिकता के माध्यम से। ‘ये न करो, वो न करो, इससे न मिलो, उससे न मिलो, इतने बजे खाओ, इतने बजे उठो, दैहिक सम्बन्ध इससे ही बनाओ, उससे न बनाओ’, ये प्रकृति का विरोध है। और ये परमात्मा का विरोध कैसे करते हैं? धर्म के माध्यम से, कि आध्यात्मिकता को नष्ट करो, और एक थोथा धर्म थोप दो।
आध्यात्मिक व्यक्ति, जो व्यक्ति सत्य में जीता है, उसका शरीर से, और संसार से, कोई विरोध नहीं होता, कोई समर्थन भी नहीं होता। वो कहता है, ‘ये इतने महत्वपूर्ण हैं ही नहीं कि इनका विरोध या समर्थन किया जाए’। आप ये मत समझिएगा कि उसे सुख या दुःख प्रभावित नहीं करते। अगर आपसे ये कहा गया है कि आध्यात्मिक आदमी को सुख-दुःख नहीं लगते, आपको गलत कहा गया है। उसे सुख पूरा-पूरा लगता है, उसे दुःख भी पूरा-पूरा लगता है। उस दिन कह रहा था न मैं कि ‘जब वो हंसेगा, तो बोधिधर्म की तरह हंसेगा, अट्टाहस। उसे दुःख भी पूरा-पूरा लगता है। मीरा जैसे रोई, या राबिया जैसे रोई, हम कहाँ रोते हैं? उसे दुःख भी पूरा-पूरा लगता है। उसे प्रकृति से छेड़खानी करनी ही नहीं है।
हम परमात्मा, और परमात्मा की प्रकृति, दोनों के विरोध में हैं। हमने मंदिरों को भी नष्ट किया है, और हमने प्रकृति को भी नष्ट किया है। मंदिर हमारे भ्रष्टाचार के केंद्र हैं, और प्रकृति को हमने पूरी तरह उजाड़ दिया है। हमने शेष रखा है तो मात्र अपना अहंकार।
आप देखियेगा, जिस व्यक्ति की परमात्मा में श्रद्धा नहीं, उसे प्रकृति भी पसंद नहीं आएगी, और जिसे प्रकृति में शीतलता मिलने लग गई, वो आध्यात्मिक हो गया। अब उसे राम नाम जपने की ज़रुरत नहीं है, उसे प्रकृति भाने लगी है, यही आध्यात्म है। झरने में उसे अनहद सुनाई देगा, तारों के मद्धम प्रकाश में उसे रास्ता दिखाई देगा, पक्षियों का कलरव उसका संगीत हो जाएगा। हर जगह उसे परमात्मा की ही गूंज सुनाई देगी। हर जगह उसे परमात्मा के ही पदचिन्ह दिखाई देंगे। यही आध्यात्मिकता है।
सम्पूर्ण प्रकृति परमात्मामय है, यही तो आध्यात्मिकता है। प्रकृति और परमात्मा साथ हैं। इनसे छिटका हुआ है, तो बस अहंकार।
-‘बोध-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।