20150314

अध्यात्म क्या है?

प्रश्न: अध्यात्म क्या है?
वक्ता: जानना आपका स्वभाव है| और अगर आप साधारण जानने से ही शुरू करें तो आप जो कुछ जानना चाहते हैं, उसके केंद्र में आप स्वयं हैं| आध्यात्म का अर्थ है- अपने आप को जानना| जानने की बड़ी उत्सुकता होती है न? बिना जाने रह ही नहीं सकते| पता होना चाहिए न?
आँखें लगातार देख रहीं हैं, कान लगातार सुन रहे हैं, मन लगातार विचार रहा है, यह सब सतही रूप से जानने के ही उपकरण हैं| तो ‘जानना’ स्वभाव है| इसी कारण मन सूचनाओं को लेकर इतना उत्सुक रहता है| पर जितना कुछ भी आप जानना चाहते हैं दुनिया में, उसके केंद्र में आप बैठे हैं, उससे संबंध आपका है, उसको अर्थ आप के ही सन्दर्भ में मिल रहे हैं| समझ रहे हैं? जिसको भी आप ‘जानना’ कहते हैं, उसको अर्थपूर्ण आपसे उसका संबंध ही बनता है| तो यदि आपको एक दीवार को भी जानना है, तो आपको उसको जानना पड़ेगा, जो दीवार को ‘दीवार’ रूप में देखता है, वास्तव में जानना पड़ेगा|
आध्यात्म का अर्थ होता है- पूर्ण जानना| छोटी-मोटी जाँच पड़ताल तो हर कोई करता रहता है| कोई ऐसा नहीं मिलेगा आपको, जो सूचनाओं से खाली हो| आप किसी से पूछ न भी रहे हो, तो इन्द्रियाँ सूचनाएं इकट्ठा करती ही रहती हैं| जो समझदार मन होता है, वो इस जानने को उसके आख़िरी छोर तक लेकर जाता है| वो कहता है, ‘जब जानना ही है, तो पूरा क्यों न जानें? या तो कुछ न जाने, ऐसा हो सकता, ऐसा तो हो नहीं पा रहा है, जानकारी तो हम लगातार इकट्ठी कर ही कर रहे हैं| ऐसा तो हो ही नहीं पा रहा कि न जाने, तो क्यों न पूरा जानें?’
न जानना भी बहुत बड़ी मुक्ति है| न जानना भी बड़ी मुक्ति है, पर वैसा तो हो नहीं रहा| बोध की जो प्रक्रिया है, वो लगातार बनी ही हुई है, मन में तरंगें लगातार उठ ही रहीं हैं| और जब यही होना ही है, तो हम पूरा क्यों न जानें, आधे-अधूरे में क्यों रुक जाएँ? आध्यात्मिकता के जो विरोधी हैं, उनसे कहियेगा कि आध्यात्मिक तो तुम भी हो, पर आधे-अधूरे, लूले-लंगड़े, क्योंकि आध्यात्मिकता का बहुत छोटा-सा अर्थ है- जानना|
क्या तुम अखबार नहीं पढ़ते? क्या तुम समाचार नहीं देखते? अड़ोस-पड़ोस में क्या हो रहा है, इसको लेकर बड़े उत्सुक रहते हो न? टी.वी., इंटरनेट, तमाम तरह की मीडिया, इतिहास, इन सब को जाने बैठे रहते हो न? तुम्हारे बेटा-बेटी क्या कर रहे हैं, तुम्हें लगातार खबर चाहिए| बैंक में कितना पैसा, शेयर मार्किट में कितना नफ़ा-नुकसान, तुम्हें सब लगातार जानना है| या तो तुम ऐसे ही हो जाते, जिसे बिल्कुल जानना न हो, जो ज़रा भी जानने को उत्सुक है, वो आध्यात्मिक ही है, पर ज़रा-सा आध्यात्मिक है| तो आध्यात्मिकता का वास्तव में कोई विरोधी होता नहीं, हो सकता नहीं, क्योंकि जानना तो हम सबकी अभिरुचि है| पर जैसे हम आधे-अधूरे होते हैं, वैसा ही हमारा जानना भी| दुनिया आध्यात्मिकता की विरोधी नहीं है, दुनिया आधे-अधूरेपन की परोकार है| समझियेगा बात को|
जो लोग कहते हैं कि आध्यात्मिक होना ठीक नहीं, वो वास्तव में क्या कह रहे हैं, इस बात को समझिये| वो कह रहे हैं कि आध्यात्मिक होना ठीक है, पर थोड़ा बहुत| थोड़ा-बहुत जानो, यह जानते रहो कि तुम्हारे बैंक में पैसा कितना है, यह जानते रहो की पड़ोसी की लड़की किसके साथ भाग गई, यह जानते रहो, पर पूरी बात मत जानो कभी| वो पूरेपन के हिमायती नहीं हैं| उन्हें आध्यात्मिकता से कोई विरोध नहीं, उन्हें विरोध है पूरेपन से और वो समर्थक हैं अधूरे होने के, आधे होने के| इसी आधे होने को, इसी अधूरे होने को, हीनता और छुद्रता कहते हैं|
जो आध्यात्मिक नहीं हुआ, वो हीन और छुद्र है, और कोई तीसरा विकल्प नहीं है| या तो आप आध्यात्मिक हैं, या आप हीन हैं, छोटे हैं, कटे-फटे हैं, आधे-अधूरे हैं|
श्रोता १: सर, आध्यात्मिकता माने ‘उसको जानना’ या ‘उसके संसार को’?
वक्ता: आप दुनिया को भी जानना शुरू करेंगे, तो आपको किसके पास जाना पड़ेगा? आप दुनिया को जान रहे हैं, आप इस दीवार सी ही शुरू करेंगे, तो आपको जानने वाले के पास भी जाना पड़ेगा| जो सतही रूप से सिर्फ जानकारी इकट्ठा करना चाहते हैं, वो इतना कहकर संतुष्ट हो जायेंगे कि यह एक दीवार है, और इसका ऐसा-ऐसा रंग है, इतनी ऊँचाई, इतनी चौड़ाई है| पर जो वास्तव में जिज्ञासु हैं, वो कहेंगे, ‘यह चौड़ाई किसको दिख रही है, यह है भी या बस प्रतीत हो रही है?’ उसका जानना फिर ज्ञात वस्तु से मुड़कर ज्ञाता की ओर आएगा, आना ही पड़ेगा| अगर आपको वस्तु को भी पूरा जानना है, तो आपको उसको जानना पड़ेगा, जो उस वस्तु का ज्ञाता है| जो उस अनुभव का अनुभवता है, आपको उसकी ओर आना ही पड़ेगा, यही आध्यात्मिकता है|
जिसे संसार को जानना है, यदि वो संसार को पूरा जानना चाहता हो, तो उसे अपने मन को जानना पड़ेगा| जब वो मन की ओर आएगा, तो मन के स्रोत की ओर भी जाना पड़ेगा, यही आध्यात्मिकता है|
श्रोता २: सर, आध्यात्मिकता कोई अंग्रेज़ी शब्द होता है क्या?
वक्ता: हाँ, बिल्कुल होता है| अच्छा शब्द है- ‘स्पिरिचुएलिटी(Spirituality)’| ‘स्पिरिट(Spirit)’ माने ‘सार(Essence)’| ‘स्पिरिचुएलिटी(Spirituality)’ अच्छा शब्द है, ‘स्पिरिट’ माने ‘आत्मा’|
श्रोता ३: सर, एक जगह हम बोलते हैं कि वस्तुएं कवल प्रक्षेपण मात्र हैं| अगर देखने वाला न रहे, तो वो भी नहीं रहेंगीं| लेकिन फिर भी यह वस्तु है या नहीं, यह बात समझ में नहीं आ रही|
वक्ता: बात समझने की नहीं है क्योंकि उतनी ही समझ में आएगी, जितना समझने वाला मन है| उस बात को जब तक विचारोगे, तो तुमको यही दिखाई देगा कि मेरे घर जाने के बाद भी यह यहीं पर रखा हुआ था, क्योंकि वो बात ऐसी है भी नहीं, जैसे तुमने उसको पैदा किया है| वो बात ऐसी है भी नहीं, जैसी तुम उसे लेकर घूम रहे हो, और वो बात ऐसी है भी नहीं जिसमें तुम ‘तुम’ हो| तो यह बात की मेरे जाने के बाद भी रहेगा और यह सारी बातें, यह लगती हीं तब तक हैं, जब तक तुम्हारी ‘मैं’ की जो परिभाषा है, वो वही है जो तुम हो|
(एक श्रोता की ओर देखते करते हुए)
ऐसे समझ लो जैसे, बस जैसे ही कह रहा हूँ, वही है यह नहीं कह रहा हूँ| जैसे बड़ा लहराता समुद्र, उस लहराते समुद्र में जो है, वो प्रकृति है और अहम् भाव है, हैं दोनों ही उसी समुद्र का हिस्सा| अहम् भाव प्रकृति में जिससे संयुक्त हो जाता है, उसे तुम शरीर बोलते हो| अहम् भाव प्रकृति में जिससे भी संयुक्त हो गया, उसे तुम शरीर बोलते हो, ‘मेरा शरीर, यह मेरा शरीर है’| और उस वस्तु के अनुरूप ही तुम्हें पूरी दुनिया दिखाई देती है| वो अहम् भाव कहीं भी जा कर कैसे भी जुड़ा होता है, तुम यह भी कह सकते हो कि सभी से जुड़ा होता है|
हर वस्तु का अपना एक ‘मैं’ होता है| इस दरवाज़े का भी है, पंखे का भी है, सबका है, और वो तुम्हारे ‘मैं’ से अलग रूप से दिखाई देता है क्योंकि प्रकृति का मतलब ही है विभिन्नता| तुम्हारा शरीर उसके शरीर से अलग है, तो उसका जो पूरा ‘मैं-पन’ है और उस ‘मैं-पन’ का जो पूरा आचरण है, वो तुमसे अलग होगा| और यह बात भी हम कह पा रहे हैं, अपनी दृष्टि से उसको देखकर|
दृष्टी होती ही अहंकार की है| दृष्टि होती ही व्यक्तिगत है| उसकी भी अपनी एक दृष्टी है, उसके भी अपने चलने, फिरने, होने के ढंग हैं और अपनी नजर में सब कुछ वैसा नहीं है, जो तुम्हारी नज़र में है| अब इस बात को यहीं पर छोड़ो, इससे पीछे की बात है, उस पर आओ| इस सवाल को क्यों इतना महत्व देना चाहते हो कि यह दीवार तुम्हारे बाद भी यहीं रहेगी या नहीं रहेगी?
श्रोता ३: यह इसलिए क्योंकि मन में जब दूसरों को देखकर ईर्ष्या उठती है या कोई और विचार उठता है, मैं अगर इस बात को जान पाऊँगा, तो फिर ईर्ष्या का भी हल ढूँढ पाऊँगा, कि जो मैं दूसरे को देख रहा हूँ, यह मेरा ही प्रक्षेपण है|
वक्ता: अगर मान लो तुम्हें यह पता चल गया कि जिससे मुझे ईर्ष्या हो रही है, यह तो मेरा ही प्रक्षेपण है, मैंने ही प्रोजेक्ट किया है, मान लो यह तुम्हें पक्का यकीन दिला दिया जाए, तो इससे तुम्हारी समस्या कैसे सुलझ जायेगी? तुम बस यह कह पाओगे कि यह तो मेरे ही दिमाग का बच्चा है, मेरी ही जेब से निकला है|
श्रोता ३: नहीं, मैं फिर इतना कह पाऊँगा की यह मेरी ही वृत्ति है|
वक्ता: तो ईर्ष्या तो तुम्हारी वृत्ति है ही| इसका उससे क्या लेना-देना?
श्रोता ३: क्योंकि वो दूसरा जब सामने आता है, तभी वो वृत्ति उठती है|
वक्ता: वृत्ति तो फिर भी तुम्हारी ही है| इसका उससे क्या लेना-देना है कि वो तुम्हार प्रक्षेपण है या नहीं? कोई तुम्हारे सामने आता है, उससे तुम्हें ईर्ष्या होती है| यह तो तुम्हें पता ही है कि ईर्ष्या कहाँ से उठ रही है? तुम्हारे ही मन में उठ रही है| तो इसमें अगर तुम्हें यह पता चल भी गया कि वो तुम्हारे ही द्वारा प्रक्षेपित है, तो इससे तुम्हें क्या मदद मिलेगी? उससे तुम्हें मदद इतनी ही मिलनी है की तू है ही नहीं, तू तो अभी-अभी मेरी ही जेब से निकला है, मैंने ही प्रक्षेपित किया है तुझको|
श्रोता ३: मन जो बहिर्मुखी है, वो कभी न कभी तो अन्दर आएगा?
वक्ता: जब तुम जा ही रहे हो इस मुद्दे पर, तो जान लो कि मन बहिर्मुखी नहीं होता क्योंकि ‘बहिर्’ होने का मतलब होता है कि तुम कह दो कि मैं वो हूँ, जो शरीर के भीतर है| अन्दर और बाहर के बीच में हमेशा कोई न कोई सीमा होनी चाहिए| जब तुम कहते हो बहिर्मुखी, तो तुमने सीमा क्या बनाई? शरीर| हम कह देते हैं साधारणतया कि मन बहिर्मुखी है| मन बहिर्मुखी नहीं है| मन मन है| यह शब्द आमतौर पर इसलिए इस्तेमाल करता हूँ|
श्रोता ३: वो मन जो बाहर को भागता है और वो मन जो ‘कोहम्’ पूछता है, उन दोनों में बदलाव तो है न?
वक्ता: जो बदलाव है, वो अभी है, हो रहा है| जो बदलाव है, वो कोई विधि नहीं है| जो बदलाव है वो अभी हो रहा है| तुम अगर कहो कि दोनों में क्या फ़र्क है, वो मन जो बाहर को भागता है और वो मन जो ‘कोहम्’ पूछता है, उन दोनों में ‘इस क्षण’ का फ़र्क है| एक मन है जो बाहर को भागता है और एक मन है जो ‘कोहम्’ पूछता है, उन दोनों मनों में अंतर यहाँ का है, इस कमरे का है| लेकिन यह बात तुम्हें रुचेगी नहीं, तुम्हें ऐसा अंतर चाहिए जो तुम्हारी पकड़ में आ सके, ताकि तुम उस अंतर को अपनी सुविधा के अनुसार ऑन-ऑफ कर सको|
उन दोनों मनों में जो अंतर है, वो तुम्हारी पहुँच से बाहर का अंतर है| वो अंतर इस बात का अंतर है कि तुम इच्छाओं से हटकर कुछ हो पाए, बैठ पाए यहाँ पर| वो किसी फार्मुले का, सिद्धांत का, दवाई का, विधि का अंतर नहीं है| मैं तुमसे कह दूँ कि वो अंतर इस बात का अंतर है कि एक मन पर कृपा है और दूसरे पर नहीं है, तो तुम उसको मजे में उड़ा दोगे| तुम कहोगे, ‘ठीक है, जब कृपा आएगी तब हो जाएगा’| कृपा टपकती नहीं है आसमान से, तुम जो हो, जो अपने आपको संसारी जीव मानते हो, तुम्हें तो जो कृपा मिलेगी, वो संसार की किसी घटना के माध्यम से ही मिलेगी| तो बस यही अंतर है उन दोनों मानों में| एक मन को यह क्षण उपलब्ध है, जिस मन को यह क्षण उपलब्ध है, वो पूछेगा ‘कोहम्’| जिस मन को यह एक क्षण, जो अभी बीत रहा है, जिस मन को यह क्षण नहीं उपलब्ध है, वो मन नहीं पूछेगा ‘कोहम्’|
अब इसमें यह ‘क्या’, ‘क्यों’ नहीं करना कि क्यों है, क्या है, क्योंकि फिर तुम वही कोशिश कर रहे हो कि, ‘इसका कारण ढूँढ़ लूँ, और अपनी जेब में डाल लूँ| और जब मन करे चालू कर दूँ, जब मन करे बंद कर दूँ, उसका मालिक बन जाऊँ, अपनी सुविधा अनुसार उसको चलाऊँ’, ऐसे चलेगा नहीं| कुछ बातों के सैद्धांतिक जवाब नहीं होते |
एक मन जो भटका हुआ है, और एक मन जो समर्पित है, उन दोनों में क्या अंतर है? इसका कोई सैद्धांतिक जवाब नहीं होता है| इसका जवाब तो समर्पण ही होता है| ‘मरकर क्या मिलता है?’ यह जीते हुए को कैसे समझाऊँ? कुछ प्रश्नों का उत्तर तो होने में होता है, जानने में नहीं| बौद्धिक जानकारी वहाँ काम नहीं आएगी, दी भी नहीं जा सकती, और दी जायेगी तो फूहड़-सी लगेगी|
तुमने जो सवाल पूछा, उसका मैंने दो तरीके से जवाब दिया| इसको एक उदाहरण की तरह लेते हैं| पहले हिस्से में मैंने उसको सैद्धांतिक तौर पर समझाना चाहा| ठीक है? प्रकृति-पुरुष की जो परिकल्पना है, और यह जो पूरी बातचीत है, जो एक पूरा मॉडल बनाया गया है, वैसे समझाया| फिर मैंने कहा देखो बात बन नहीं रही है, उसको रोको| फिर मैं ‘मैं’ पर उतरा कि तुम यह सवाल पूछ क्यों रहे हो, और उसको वहाँ पर लेकर आया जहाँ वास्तव में समाधान है| जहाँ वास्तव में समाधान है, वहाँ यही दिख रहा है कि समाधान मन की पकड़ से बाहर का है|
मेरे दोनों तरह के उत्तरों में से ज़्यादा उपयोगी उत्तर कौन-सा था? हाँ, पहले वाले उत्तर का तुम उपयोग कर ले जाते| समझो बात को| वो तुम्हारे लिए उपयोगी नहीं होता, लेकिन तुम उसका उपयोग कर ले जाते| कैसे? तुम उसे किसी और को बताते, ज्ञान झाड़ आते, अपने आपको तुम समझा लेते कि मैं जान गया हूँ, होशियार हो गया हूँ| यह जो दूसरा उत्तर है, यह तुम्हारे उपयोग का नहीं है क्योंकि तुम जब भी इसे स्मरण करोगे तो तुम्हें यही दिखाई देगा, ‘फजीहत’| यह तुम्हारे उपयोग का नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए उपयोगी है| तुम इसका उपयोग नहीं कर पाओगे, पर तुम्हारे लिए उपयोगी है|
अब यही है दुनिया में- तुम्हारे लिए जो कुछ भी उपयोगी है, वो तुम्हारे उपयोग का नहीं है| क्या करोगे? बड़ी ख़राब हालत है|
- ‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|
सत्र देखें: http://www.youtube.com/watch?v=6wYOL9Cab4