20150307

विधियों की सीमा

चुपै चुप ना होवई जे लाइ रहा लिव तार
                     – जपुजी साहिब(पौड़ी १)
अनुवाद: मौन धारण करने से मन चुप नहीं होता और ना ही प्रभु से मिलाप होता है , चाहे मन लगातार ध्यान में लगा रहे!
वक्ता: चुपै चुप ना होवई, इसमें हमें कोई समस्या नहीं हैं| बात सही है कि मौन धारण करने से भी मन चुप नहीं होता, वो हमारा अनुभव है| कुछ भी कर लो मन चुप नहीं होता, शांत नहीं होता| समस्या दूसरे भाग में आ रही है, इसी कारण कई लोगों ने आज ये प्रश्न लिखा है|
दूसरा भाग कहता है कि तुम कुछ भी कर लो, तुम शांत हो जाओ, तुम मौन धारण कर लो, तुम अंतर में समा कर शब्दहीन हो जाओ, तब भी बात बनेगी नहीं| चुप तुम्हें तब भी उपलब्ध नहीं होगा|
तो बड़ी ठेस लग रही है| ‘चुप हो जायेंगे, अंतःस्थल में समा जायेंगे, तब भी नहीं मिलेगा? इतना क्या दुरूह है पाना?अरे! जितनी तुम्हारी शर्तें थीं सब कर तो दीं पूरी, अब आओ| अपनी ओर के काम हमने पूरे कर दिए, अब तुम अपना काम करो, व्यापार ही तो है| हम चुप हो गये, हमने सारे नियम कायदों का पालन कर दिया, आचरणबद्ध जो जो काम किये जा सकते थे हमने कर दिये, अब तो हमारी उम्मीदें पूरी करो’|
नानक जैसे लोग इस मुर्खता में नहीं फंसते| कहते हैं, ‘तुम कुछ भी कर लो, तुम सौ सिद्धियाँ प्राप्त कर लो, तुम अपनी नाड़ी रोक लो, तुम मुर्दे ही हो जाओ, तुम अखंड मौन धारण कर लो के जी महोदय ने पिछले आठ वर्षों से एक शब्द उच्चारित नहीं किया किया है, तुम्हें तब भी नहीं मिलेगा’| तो बुरा सा लग रहा है ये पढ़ने में| ‘हम इतने गए-गुज़रे हैं, हमारी कोई हैसियत ही नहीं है, हम सब कुछ कर लें तुम तब भी नहीं मिलोगे’| बिल्कुल यही कह रहे हैं नानक, ‘तुम्हारी कोई हैसियत ही नहीं, तुम जितने काम कर सकते हो वो सब निष्फल ही जाने हैं या ये भी कह लीजिये कि उनका एक ही फल होना है- कि तुम्हारी बेचैनी और बढ़ेगी|
बड़ी होशियारी है न हमारी, हर तरीके की जुगत हम लगा लेते हैं| हम सोचते हैं कि जैसे हमने सूक्ष्म से सूक्ष्म यन्त्र बना लिए हैं, जो बड़े से बड़ा काम कर देते हैं, कम्प्यूटर बना लिए हैं, अंतरिक्ष में पहुँच गये हैं, हज़ार तरह की विधियाँ आयोजित कर ली हैं शरीर को नियंत्रित करने की, तो उसी तरीके से आत्मा को भी पा लेंगे|
‘आत्मा को पाने की भी कोई तो विधि होगी ही, भले ही कष्टकर विधि होगी, ऐसी विधि होगी जो बड़े योग्य लोगों के लिए होती है, पर हमारी योग्यता भी क्या कम है? हम करके दिखायेंगे| हमने चंद्रमा को पा लिया, हमने मंगल को पा लिया, आत्मा को क्यों नहीं पा सकते? परम को क्यों नहीं पा सकते? अरे हम बड़े जाँबाज हैं! बताओ समाधि मारनी है? अभी मारते हैं| हम किसी से कम नहीं’| यही भाव है जो दावा करता है कि ‘पाने निकला हूँ’, यही भाव है जो कहता है कि’ पा लूंगा’| कौन पा लेगा? ‘मैं पा लूंगा, मैं बड़ा होशियार, मैं बड़ा समर्थ’|
‘अरे हम दिखायेंगे, अपनी योग्यता प्रदर्शित करेंगे, दुनिया यूँ ही हमारा लोहा नहीं मानती, हम कुछ हैं, और संभव हुआ तो आत्मा से कुछ प्रमाणपत्र लेकर आयेंगे ताकि दिखा सकें कि ये देखो हमने आत्मा को पा लिया| तुम हिमालय पर क्या चढ़ रहे हो, हम आत्मा पर चढ़ कर आये हैं’| तो बड़ी तकलीफ़ हो रही है, एक बार पूछा जा रहा है, दो बार पूछा जा रहा है और आज तो कमाल ही हो गया, तीन लोग एक ही बात पूछ रहे हैं, तो मैं समझ रहा हूँ कि तकलीफ क्या है| बात बहुत सीधी है|
‘चुपै चुप ना होवई जे लाइ रहा लिव तार’
ये जो अहंकार है उसे बेचैनी हो रही है, वो ऐसे ऐसे तिलमिला रहा है कि ये क्यों कह दिया| इतना भर कह देते कि ‘चुपै चुप ना होवई’, तो बात ठीक थी, साधारण मनुष्यों के लिए चुप होना ही बड़ा मुश्किल है, पर हमें भी साधारण बोल रहे हो| ये क्यों कह दिया कि तुम कुछ भी कर लो तब भी अप्राप्य ही रहेगा? ये बात गलत हो गयी| यही सत्य हमें स्पष्ट दिखाई दे, यही ठेस हमें लगे, यही संतों की इच्छा रही ह | माया बड़े रंग धरती है, बहुरुपनी है| कभी स्थूल, कभी सूक्ष्म, छोटी, बड़ी, ऐसी, वैसी, जितने रूप, जितने रंग ,जितने आकार हो सकते हैं, सब माया के ही तो हैं| और कोई भी आकार रख ले, माया तो माया है, बड़ी से बड़ी हो, छोटी से छोटी हो, माया ही है|
तो कोई ये न समझे कि शमन कर लिया है, शमन नहीं कर लिया है, आपने उसका रूप परिवर्तित कर लिया है, या यों कहिये कि आपको छलने के लिए उसने अपना रूप परिवर्तित कर लिया है| आप पहले दुनिया पर ये कह कर धाक जमाना चाहते थे कि देखो मैं ऐसे होशियार हूँ, मैं वैसे होशियार हूँ, मैंने पैसा कमाया है, मेरा सामान्य ज्ञान बहुत खूब है| अब आप उसी दुनिया पर दोबारा धाक जमाना चाहते हो यह कह कर कि मैंने आत्मा को कमाया है और मेरा आध्यात्मिक ज्ञान खूब है| जो धन का अर्जन करने निकले थे, वो अब आत्मा को अर्जित करना चाहते हैं, स्वयं को अर्जित करना चाहते हैं| जो समान्य ज्ञान में खूब आगे रहते थे कि बाज़ारों में क्या चल रहा है, शेयर मार्केट में क्या चल रहा है, पड़ौसी के घर में क्या चल रहा है, किस दफ़्तर में क्या चल रहा है, किस कम्पनी में क्या चल रहा है, वो लोग अब आध्यात्मिक ज्ञान में भी कुलाँचें मारते हैं|
‘ज़रा बताना कि अष्टांग योग क्या होता है| तुम्हें नहीं पता, हमें पता है| पहले खूब बोलते थे और बोलने में इनका ये अहंकार था कि मैं सबको चुप करा देता हूँ, ‘जब हमारा मुँह खुलता है तो बाक़ी सब का बंद हो जाता है’, अब ये मौन में सबसे आगे हैं, पर हैं ये अभी वही, कुछ बदला नहीं है, अब ये मौन में सबसे आगे हैं| पहले ये बेवकूफ़ी की बातें करने में सबसे आगे रहते थे, अब ये बुद्धिमत्ता की बातें करने में सबसे आगे हैं| ये जहाँ जाते हैं वहीं किलो, दो किलो ज्ञान गिर जाता है, इतना ज्ञान हो गया है कि सम्हाला नहीं जाता|
तो तुम्हें ठेस लग रही है नानक के ये वचन पढ़ कर, तुम वही हो जिसको नानक ठेस देना चाहते हैं| तुम्हारे शुभचिन्तक हैं इसीलिए ठेस देना चाहते हैं| तुमसे कह रहे हैं कि तुमसे नहीं हो पायेगा क्योंकि तुमने तय ही कर लिया है कि तुम्हें जीवन मूढ़ता में ही बिताना है| तुम रूप बदलने को तैयार हो, रंग बदलने को तैयार हो, पर विसर्जित होने को तैयार नहीं हो| बड़ा घना अहंकार है तुम्हारा, अब वो रूप बदल कर कहीं और बैठ गया है, वो हटना नहीं चाहता, समर्पित नहीं होना चाहता| तुम्हें सिद्धियाँ चाहिये, वो तुम्हारे तमगे बनेंगीं|
संत में और हम में यही अंतर है| संत होता है समाधिस्थ और हम सिद्धि से आगे सोच ही नहीं पाते| सिद्धि का अर्थ है- जगत में जो किया जा सकता है, उसका ऊँचे से ऊँचा शिखर, ‘जो कोई नहीं कर सकता, वो हम कर देंगे’| सिद्धियों को बड़े मज़ेदार रूपों में वर्णित किया जता है कि, फलाना था वो पानी पर चला करता था, फलाना था वो कई वर्षों तक बिना खाये रह जाता था’| सुना था न ये सब बचपन की कहानियों में, कि बड़े सिद्ध थे, वो ये सब किया करते थे? इसका अर्थ यही है कि दुनिया में जो कोई नहीं कर सकता है, वो तुम कर सकते हो| सब इशारे हैं|
संत को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं होता कि आसमान में उड़े या पानी पर चले| वो कहता है कि ये सब बेवकूफ़ी की बातें हैं| संत बैठता है समाधि में और समाधी का जगत से कोई लेन- देना नहीं है| हमें जो कुछ चाहिए, ऊँचा से ऊँचा, वो चाहिए अंततः चाहिए जगत में ही, सिद्धि| संत को सिद्धि से कोई मतलब नहीं|
-‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|