कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ।।
-कबीर
मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ।।
-कबीर
वक्ता: आदमी जो कुछ भी करता है, वो करता किसी इच्छा के वशीभूत होकर ही है, और हर इच्छा आख़िर में परम की ही इच्छा है। लेकिन आप जो कुछ भी करते हैं, उस पर तुरंत ही माया कब्ज़ा कर लेती है। आपका बड़े से बड़ा प्रयास भी अंततः जिसकी तरफ जाने के लिये होता है, उसकी तरफ जाने की बजाय, उसके विपरीत मोड़ दिया जाता है।
हम जो कुछ भी करना चाहते हैं, पाना चाहते हैं, उसका आख़िरी लक्ष्य होता है कि शांति मिल जाएगी, चिंताओं से मुक्त हो जाएंगे, आनन्द में रहेंगे, और हम सोचते हैं कि कुछ ‘कर’ के हम वहां पहुँच जाएंगे जहां शांति है, मुक्ति है, आनन्द है। करा ही इसीलिये जा रहा है कि शांत हो सकें, पर जहां पहुँचना है, वहां तो कभी पहुंचते नहीं, तो शांति कभी मिलती नहीं। करने की प्रक्रिया हमें और अशांत कर जाती है।
खेल देखियेगा, आप सब कुछ कर इसलिए रहें हैं ताकि अंततः शांत हो सकें, अंततः आनंदित हो सकें, पर शांति, आनंद तो कभी मिलते नहीं। आपके सारे कर्तत्व से, आपकी सारी प्रक्रियाओं से, सारी कोशिशों से भी न शांति आ रही है, न आनंद आ रहा है। इतना ज़रुर है कि ये कोशिशें हमें गहरी अशांति से भर गईं हैं। परम तक पहुंचने की, और ना कहिये उसे आप ‘परम’, शांति ही कह लीजिये, शांति तक पहुंचने की हमारी सारी कोशिशें ही हम पर उल्टी पड़ गई हैं, हम पर भारी पड़ गईं हैं। क्या यही कहानी नहीं है हमारी?
आप जो भी कर रहें हैं, किसलिये कर रहें हैं? आपके क्या लक्ष्य हैं? क्या चाहिये? सुकून। और जो कर रहें हैं, वही कर-कर के सुकून दूर हुआ जा रहा है- यही माया का बड़े से बड़ा खेल है। वो आपको पहले तो ये बताती है कि सुकून दूर है, कुछ करो, और ज्यों ही आप करने में उद्यत होते हो, वो जो दूर था, वो और दूर हो जाता है। या ये कह लीजिये कि ज्यों ही करने में उद्यत होते हो, जो पास था, वो दूर हो जाता है।
तो पहला भ्रम आपको ये कि वो दूर है। वो दूर कभी था ही नहीं, वो पास था। माया, पहला भ्रम आपको ये देती है कि वो दूर है। और माया दूसरा भ्रम आपको ये देती है कि कुछ कर-कर के उसको पाया जा सकता है। और इन दोनों का नतीजा बस ये होता है कि जो पास ही है, उसको आप दूर मान के, उसको पाने की चेष्टा में संलग्न हो जाते हैं, और ये पाने की चेष्टा ही जो पास है, उसे दूर प्रतीत करा देती है।
विधियों के ख़िलाफ़ बोल रहें हैं कबीर, तरीकों के ख़िलाफ़ बोल रहें हैं कबीर। कबीर कह रहें हैं, ‘तुम जितने तरीके लगाओगे, हर तरीका माया का ही उपकरण बन जाएगा’।
तुम जितने मंदिर बनाओगे, भगवान से उतने दूर होते जाओगे।
तुम जितने महल बनाओगे, तुम जितने किले खड़े करोगे, उतने ही असुरक्षित होते जाओगे। ये सब विधियाँ हैं। मंदिर एक विधि है, महल एक विधि है। तुम जितना पैसा इकट्ठा करोगे, तुम उतने ही गरीब होते जाओगे, पैसा एक विधि है। तुम अपने आसपास जितने दोस्त-यार इकट्ठा करोगे, तुम्हारा जीवन उतना ही सूना होता जाएगा, दोस्त-यार एक विधि हैं। तुम जितने भी तरीके प्रयोग करोगे शांति को पाने के, शांति से उतने ही दूर होते जाओगे क्योंकि तरीकों को अपनाना इसी धारणा का द्योतक है कि तुम्हें लग रहा है, सर्वप्रथम, कि शांति दूर है। यदि दूर ना होती, तो तुम तरीके लेकर क्यों आते उसे पाने के?
जहां तरीकें हैं, वहीँ भ्रम है, वहीँ छल है, और यही माया का बड़े से बड़ा खेल है कि आपको ये तरीके दे दिये जाएं, आपको मंदिर दे दिये जाएं, कि मंदिरों के तरीके से, मंदिरों के माध्यम से पालोगे ईश्वर को। आपको कर्ता होने का भ्रम दे दिया जाए कि कर-कर के अर्जित करोगे।
जहां कहीं भी कर्ता होने की और अर्जित करने की भावना है, वहाँ जो मिला हुआ है, वो भी छिन जाता है।
जिसने भी ये सोचा कि अर्जित कर लूंगा, वो अंततः ये पाएगा कि अर्जित करने को तो कुछ था ही नहीं। अर्जित करने की प्रक्रिया में जो हमेशा से मिला हुआ था, उससे भी दूर हो गए। अर्जित करने को तो वैसे भी कभी कुछ नहीं था। हां, अर्जित करने की प्रक्रिया में जो मिला ही हुआ था, उससे भी दूर हो गए।
कर्ताभाव से चेता रहें हैं कबीर। मत खड़े करो मिट्टी, चूने, पत्थर के अपने ये ढांचे। चाहे वो तुम्हारा मंदिर हों, चाहे तुम्हारा महल हो, और चाहे तुम्हारा दफ्तर हो, तुम्हारा प्रत्येक ढांचा, तुम्हारे मन से निकला है, तुम्हारी चाहतों से निकला है। जो तुम चाह रहे हो, वही नहीं मिलेगा तुम्हें इस ढांचे के द्वारा। और ठीक इसी कारण नहीं मिलेगा क्योंकि तुमने उसको पाने का एक तरीका बनाया।
“तुम्हारे द्वारा बनाई गई हर सड़क तुम्हें तुम्हारी मंज़िल से दूर ही ले जाएगी”।
तुम मत बनाओ इन सड़कों को। क्षणिक सुकून मिल सकता है, क्षणिक रूप से तुम्हें ये संतुष्टि हो सकती है कि ‘मैं’ अपनी मंजिल तक जाने के लिये देखो कितनी राहें बना रहा हूं। तुम ये समझ ही नहीं रहे हो कि हर राह तुम्हें तुमसे दूर ही ले जाती है। तुमने ही बनाई है न? जब तुमने बनाई है, तो परम तक कैसे ले जाएगी? पर आदमी का अहंकार है। विधि किसने बनाई? ‘मैंने’। और ले कहां तक जाएगी? ‘परम तक’। शाबाश! आप तो बड़े होशियार हैं? मुझे शांति चाहिये। अगर मुझे शांति चाहिये, तो मैं अभी कैसा हूं?
सभी श्रोतागण (एक स्वर में): अशांत।
वक्ता: अशांत। और उस शांति के लिये मैंने बड़ी तरकीबें लगाई हैं, बड़ी विधियाँ लगाई हैं, बड़े रास्ते खोजे हैं। वो रास्ते किसने खोजे हैं? मैंने। और मैं क्या हूं?
कुछ श्रोतागण (एक स्वर में): अशांत।
वक्ता: इस अशांत मन से मैंने जो रास्ते खोजे हैं, जो मुझे कहां तक ले जाएंगे?
कुछ श्रोतागण (एक स्वर में): शांति तक।
वक्ता: आप बड़े होशियार हैं! शांति चाहिये, यही इस बात का प्रमाण है कि आप अशांत हैं, और ‘आपने’ रास्ते खोजे हैं शांति तक जाने के। अशांत मन ने, शांति तक जाने के रास्ते खोज लिये। आप इतने होशियार ही होते, तो आप अशांत क्यों होते?
कोशिश हम सब की यही है कि मैं पा लूं। अरे! अगर तुझे कुछ पाने की इच्छा है तो इसका मतलब अभी क्या हाल है तेरा? अभी तुझे मिला नहीं हुआ है, मिला नहीं हुआ है। तो मतलब तू कौन है? तू बेवकूफ़ है। जब तू बेवकूफ़ है, तो तू साधन भी कैसे जुटा लेगा पाने के? जो तू रास्ते बनाएगा, वो कैसे रास्ते होंगे? वो बेवकूफ़ी के ही रास्ते होंगे। पर आदमी ने हमेशा से रास्ते बनाए हैं, ख़ूब रास्ते बनाए हैं। ऐसे कर लो तो हो जाएगा, वैसे कर लो तो हो जाएगा, ये विधियाँ, वो तरीके, ये नियम, वो क़ायदे। तुम्हारे द्वारा बनाया गया कोई नियम-कायदा, कोई विधि-विधान, उस तक पहुंचा सकता है क्या? पर अहंकार बहुत है। हम कर के दिखाएंगे।
दो बातें हैं। मुझे अब और क्या करना चाहिये? तुम्हें इस कमरे से बाहर निकल जाना चाहिये। मर रहे हो, तड़प रहे हो, बिलख रहे हो, पर ठसक अभी बाकी है। सर, मुझे और अब क्या ‘करना’ चाहिये? अभी भी ये ‘करने’ का भाव नहीं जा रहा कि ‘मैं कर के दिखा दूंगा’, समर्पित नहीं हो पा रहे, गिर नहीं रहे, चालाकियां कम नहीं हो रहीं हैं। आप किसी पागलखाने में जाएं, वहां कोई पागल ख़ुद अपना इलाज कर रहा हो, तो आप उसे क्या कहेंगे?
श्रोता १: दुगुना पागल।
वक्ता: और आप जब ख़ुशी ढूंढते हैं और सोचते हैं कि ‘आप’ ख़ुशी पा सकते हैं, तो आप क्या कर रहें हैं?
श्रोता २: पागलपन।
वक्ता: कोई पागल ख़ुद अपना इलाज कर सकता है क्या? अगर वो ख़ुद अपना इलाज कर सकता, तो पागल ही क्यों होता? पागल है, यही इस बात का प्रमाण है कि उसे एक कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए। किसकी?
श्रोता ३: अपने इलाज की।
वक्ता: अपने इलाज की। और पागल है, इसी कारण एक कोशिश वो अनिवार्यतः करेगा ही करेगा। क्या?
श्रोता ३ (पुनः): अपने इलाज की।
वक्ता: अपने इलाज की। तुम दुखी हो, यही इस बात का प्रमाण है कि तुम पागल हो। और अगर तुम दुखी हो, तो एक कोशिश तुम्हें नहीं करनी चाहिये। क्या? सुख पाने की। अगर दुखी आदमी ने सुख पाने की कोशिश की तो एक बात पक्की है। क्या? कि वो पाएगा…
सभी श्रोतागण (एक स्वर में): और दुःख।
वक्ता: और जब वो और दुःख पाएगा, तो वो और कोशिश क्या करेगा?
सभी श्रोतागण (एक स्वर में): और सुख पाने की।
वक्ता: और वो और गिरता जाएगा, और गिरता जाएगा। यही हमारी कहानी है। एक बात हम स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि अगर हम इतने ही लायक होते, तो हमारी ये दुर्दशा क्यों होती।
हज़ारों पुरानी कहानियां हैं जहां पर ये उल्लेख है कि संतों ने सुल्तानों को आईना तोहफ़े में दिया। तोहफ़े में आईना। वो और कुछ देते ही नहीं थे। एक कहानी तो यहां तक है कि एक चित्रकार था, वो जंगल में रहता था, मज़े में रहता था, उसे दुनिया से कोई मतलब नहीं था। उसको एक सुल्तान ने पकड़ लिया कि चलो मेरा नया महल बन रहा है, इसमें तुम अपनी कारीग़री दिखाओ। तो उसने कहा, ‘छोड़ दीजिये मुझे, मैं जो चित्र बनाऊंगा वो आपको पसंद नहीं आएंगे, वो थोड़े अजीब होते हैं’। सुल्तान ने कहा, ‘नहीं, नहीं, मैंने सुना है कि तुम बड़े अद्भुत चित्र बनाते हो। चलो आओ, मेरे यहां भी बनाओ। ये जो मेरा सोने का कमरा है, मेरा शयनकक्ष, ये ख़ासतौर पर तुम्हें दे रहा हूं। इसकी दीवारें ऐसी कर दो कि मैं जब भी इन्हें देखूं..’।
चित्रकार ने कहा, ‘ठीक है, साल भर लगेगा, इतने कारीगर चाहिये, और साल भर तक यहाँ कोई न आए मुझे देखने’। साल भर तक जोर-शोर से काम चलता रहा। साल भर बाद जब सुल्तान अंदर आया तो देखा कि उस चित्रकार ने इतना ही किया था कि दीवारों को घिसा था, और बस घिसा था, और इतना घिसा था कि वो आईना बन गईं थीं। सुल्तान यह देखकर पागल हो गया।
जब चारों ओर अपनी ही अपनी ही शक्ल ध्यान से दिखाई दे जाए, तो इतना तो पक्का हो जाएगा कि ये अहंकार जाता रहेगा कि ‘मेरे करे मुझे कुछ मिल सकता है’। दिखाई तो दे न अपनी आँखों का सूनापन, अपने चहरे का इतना बेरौनक होना। पर ठसक हमारी पूरी यही है कि ‘दुखी हूं पर सुख अपने ‘करने’ से पा जाऊंगा। पागल हूं, पर इलाज अपना ख़ुद ही कर लूंगा।
कल्पना करिये एक व्यक्ति की जिसे ब्रेन ट्यूमर है और वो ख़ुद बैठ कर अपनी सर्जरी कर रहा है, ऐसी हमारी हालत है। और अगर कोई डॉक्टर इलाज कर रहा है तो उससे बोल रहा है, ‘यह मेरा व्यक्तिगत मामला है, हस्तक्षेप मत करना। अरे! मेरा ट्यूमर है, मुझसे ज़्यादा कौन बेहतर जानेगा उसे। मैं खुद निकलूंगा। और जे. कृष्णमूर्ति ने भी यही सिखाया है- ‘बी योर ओन लाइट (अपना प्रकाश स्वयं बनो)’, बुद्ध ने भी यही सिखाया है, ‘अप्प दीपो भव’। तो इसका अर्थ ही यही है कि अपने ब्रेन के ट्यूमर का ख़ुद इलाज करो। तो मैं, ‘अप्प दीपो भव’ हूं, किसी पर निर्भर नहीं हूँ, अपनी चिकित्सा ख़ुद कर सकता हूँ’।
‘अरे! हम खुद कर लेंगे। यही तो कहा है उन्होंने कि अपनी आखें खोलो, अपनी आखों से देखो, तो खोल लेंगे अपनी आँखें’। तुम्हारी आखें हैं खोलने के लिये? अपनी दृष्टि से तुम देख ही पाते, तो तुम्हारी ये हालत होती? कृष्णमूर्ति और बुद्ध ने कहा है, पर तुमसे नहीं कहा है। ग़लत मत समझ लेना। निश्चित रूप से कहा है बुद्ध ने, ‘अप्प दीपो भव’, पर उनसे कहा है जिनका दीप थोड़ा तो प्रज्जवलित है। तुमसे नहीं कहा है, तुम नाहक ही उनके वचन पकड़ कर बैठ गये हो। और मैंने देखा है कि उनके वचन सबसे ज़्यादा वो पकड़ते हैं जो सबसे ज़्यादा बुझे हुए होते हैं। जो जितना पागल होता है, वो सबसे ज़्यादा अपना इलाज करने को आतुर होता है। ‘मैं ही कर लूंगा। कर लूंगा! अरे! अपनी पूरी ज़िंदगी हमने कर के दिखाया है, आज भी कर लेंगे’।
एक विश्वविद्यालय है जहां पर हमारा कोर्स चलता है। वहां से प्रतिपुष्टि(फीडबैक) आई और उसमें यही लिखा थ कि ‘हम ख़ुद ही कर लेंगे। आप क्यों हमें ये सब करवा रहें हैं? ये सब कोई पढ़ाने की बातें हैं? ये तो हमारी ज़िंदगी से संबंधित बातें हैं न? हम ख़ुद ही जान जाएंगे। ये किसी और से थोड़े ही सुननी होती हैं। हम कर लेंगे’। तुम कर लोगे? वाकई कर लोगे? कर सकते होते, तो ऐसे होते?
कितने अंधे हो? ये लो आईना। आईना भी असफल हो जाता है। वहां भी ये माना जा रहा है कि कम से कम इतनी दृष्टि तो शेष बची है कि आईने से ही सही, देख तो लोगे।
श्रोता ४(व्यंग्य करते हुए ): हम उसमें भी कुछ और ही देखने लगते हैं।
- ‘ज्ञान सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
सत्र देखें: https://www.youtube.com/ watch?v=HE12_Y4GgYk