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उक्तियाँ, बोध सत्र से, १८–२४ जनवरी ‘१५
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१. तुम सोचते हो कि अपनी चतुराई में तुम आपदाओं से बचने के उपाय कर रहे हो। तुम आपदाओं से बचने का इंतज़ाम नहीं, आपदाओं को इकट्ठा करते हो। जीवन भर खट-खट कर तुम अपने बुढ़ापे के कैंसर के लिए पैसा इकट्ठा करते हो, और देख नहीं पाते कि खट-खट कर तुमने कैंसर ही इकट्ठा कर लिया है।
२. निर्लज्ज, बेशर्म जियो। फूलों की तरह, सूरज और चाँद की तरह, नदियों, पहाड़ों और पशु-पक्षियों की तरह। अस्तित्व को कोई शर्म नहीं और परमात्मा को कोई पर्दा नहीं। तुमने ही अपनी होशियारी में अपने को शर्मनाक और शर्मसार बना लिया है।
परम निर्विकार, निर्विशेष, निराकार और निरंजन ही नहीं, निर्लज्ज भी है।
३. विज्ञापन से बचो। विज्ञापन मनोरंजन नहीं, तुम्हारे मन पर आक्रमण हैं। विज्ञापन बुद्धि के साथ धोखा और कामना के लिए न्यौता हैं।
४. दिमाग ठीक रखो सब ठीक रहेगा।
५. मुक्ति का विचार उठ रहा है, यह तो ठीक है, पर यह विचार भी करो कि मुक्ति की कीमत क्या है। क्या वो कीमत देने को तैयार हो?
६. जो तुम्हें बार-बार ध्यान से हटा दे, तुम उस वस्तु या व्यक्ति को ही हटा दो। और कुछ न करते बने तो उस स्थान से ही हट जाओ।
७. भागने का नाम मन है, चाहे वो किसी भी तरफ भागे।
८. वही जो हमें भोग के लिए ललचाते हैं, वही नैतिकता के माध्यम से भोग को बुरा बताते हैं।
९. तुम्हारे मन को कोई विचलित करे, ये अन्याय है तुम्हारे साथ। रिझाने वालों को धोखेबाज़ जानना, खुश नहीं होना; रिझाना प्रेम नहीं चालबाज़ी है।
१०. जहां स्वार्थ सिद्ध हो वहां कभी आलस नहीं आता; आलस मन की स्वयं को बनाए रखने की चाल है। हमने सत्य, मुक्ति को बहुत पीछे की प्राथमिकता दी है, जहाँ सत्य और मुक्ति होंगे वहां हमें आलस आ जाएगा। नींद, आलस अहंकार का कवच हैं।
११. जितने आतुर हो तुम उससे मिलने के लिए उससे दुगनी प्यास है उसे तुमसे मिलने के लिए। दोनो की भूख एक है: एक हो जाऊं।
१२. परम से परम को मांगना, सो है प्रार्थना: कि तुमसे कुछ नहीं चाहिए, बस तुम ही आ जाओ।
१३. गरीब रह पाना बहुत अमीरों का काम है। गरीब होता तो गरीब थोड़े ही होता। तुम्हारे पास जब प्रभु नहीं होता तब तुम धन इकट्ठा करते हो। धन्य वो जो वास्तविक धन को उपलब्ध हो जाता है।
१४. आम मन समाज और नैतिकता से भरा होता है। इसी कारण उसमें प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होती।
प्रेम न सामाजिक होता है न नैतिक होता है। प्रेम बस आध्यात्मिक होता है।
१५. जिन तक मौत की ख़बर पहुँच गई, वो जीना सीख जायेंगे ।
१६. साधु का आदर करने के लिए आपने अंदर साधुता चाहिए ।
साधु से प्रेम आत्मा से प्रेम है , परम से प्रेम है ।
१७. आप जिस तल पर हो दुनिया आपको उसी तल पर दिखाई देगी ।
बस आत्मा के तल पर आपको असली साधु का दर्शन हो सकता है ।
१८. साधु तुम्हारे द्वार भिक्षा नहीं, तुम्हें मांगने आता है । साधु अगर असली होगा तो वो तुमसे धन नहीं तुम्हें मांगेगा ।
१९. जिस इंसान की धन इकट्ठा करने में बड़ी रूचि है, वो अंदर से दरिद्र है। आतंरिक दरिद्रता ही उससे धन इकट्ठा करवा रही है ।
२०. जब तक दिल में गहरी अमीरी न हो तब तक तुम ग़रीब भी नहीं हो सकते। तुम्हारे पास जब प्रभु नहीं होते तब पैसा इकट्ठा होता है ।
२१. धन्यता – जो धन्य हो गया है। जिसे वास्तविक धन प्राप्त हो गया है।
मन का आत्मा से एक हो जाना – यही धन्यता है ।